ब्रिटेन ने चागोस द्वीपसमूह मॉरीशस को सौंपा, भारत ने बताया ऐतिहासिक और स्वागत योग्य कदम। जानिए भारत का रुख, रणनीतिक असर और चागोसियन समुदाय की प्रतिक्रिया।
ब्रिटेन ने आखिरकार दशकों से चले आ रहे उपनिवेशवाद के एक अध्याय को बंद करते हुए चागोस द्वीपसमूह की संप्रभुता मॉरीशस को सौंप दी है। इस ऐतिहासिक निर्णय का भारत ने गर्मजोशी से स्वागत करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय न्याय, क्षेत्रीय अखंडता और डिकोलोनाइजेशन की दिशा में एक बड़ी जीत बताया है। यह फैसला अंतरराष्ट्रीय दबाव और संयुक्त राष्ट्र के स्पष्ट निर्देशों के बाद सामने आया है।
भारत का रुख
भारत, जो लगातार मॉरीशस के दावे का समर्थन करता आया है, ने इस कदम को “स्वागत योग्य” बताते हुए कहा कि यह समझौता अंतरराष्ट्रीय कानून के सिद्धांतों पर आधारित है। 2019 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में भी ब्रिटेन के खिलाफ वोट देकर मॉरीशस के पक्ष में अपना समर्थन जताया था।
विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 2024 में मॉरीशस की यात्रा के दौरान चागोस द्वीपसमूह के मुद्दे पर भारत के “स्थिर समर्थन” की बात दोहराई थी। उन्होंने मॉरीशस के साथ भारत के ऐतिहासिक रिश्तों और हिंद महासागर क्षेत्र में सामरिक साझेदारी को भी दोहराया।
डिएगो गार्सिया का क्या होगा?
इस सौदे के तहत, चागोस द्वीपसमूह का एक हिस्सा, डिएगो गार्सिया जहां अमेरिका और ब्रिटेन का सामरिक सैन्य अड्डा स्थित है, उसे 99 वर्षों के लिए पट्टे पर यथावत रखा गया है। इस फैसले को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं।
इस सौदे में चागोसियन समुदाय की कोई भागीदारी नहीं रही, जिन्हें वर्षों पहले जबरन द्वीप से हटाया गया था। अब वे पुनर्वास और न्याय की उम्मीद लगाए बैठे हैं, जो फिलहाल इस समझौते में नदारद है।
भारत-मॉरीशस संबंध और हिंद महासागर रणनीति
भारत और मॉरीशस के संबंध ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और रणनीतिक रूप से गहरे हैं। यह फैसला दोनों देशों के सहयोग को और मज़बूती देगा, खासकर हिंद महासागर क्षेत्र में शांति, सुरक्षा और आर्थिक साझेदारी के दृष्टिकोण से।

ब्रिटेन द्वारा चागोस द्वीपसमूह को मॉरीशस को सौंपना न केवल उपनिवेशवाद के एक पुराने अध्याय का अंत है, बल्कि यह क्षेत्रीय स्थिरता और अंतरराष्ट्रीय न्याय की दिशा में एक मजबूत संकेत भी है। भारत का सकारात्मक रुख इस पूरे घटनाक्रम को और अधिक वैश्विक वैधता प्रदान करता है।
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