Source| AP News
गाजा में ईद-उल-अज़हा का त्योहार मांस, कपड़े और खुशियों के बिना बीता। जानिए कैसे युद्ध और घेराबंदी ने एक पवित्र पर्व को पीड़ा में बदल दिया।
जब दुनिया भर के मुसलमान ईद-उल-अज़हा के पावन अवसर पर बलिदान और उत्सव की तैयारी में व्यस्त थे, तब गाजा पट्टी के नागरिकों के लिए यह त्योहार एक नई पीड़ा का प्रतीक बन गया।
इस्लामी परंपरा के अनुसार, ईद-उल-अज़हा पैगंबर इब्राहिम (बाइबिल में अब्राहम) की ईश्वर के प्रति निष्ठा की स्मृति में मनाया जाता है। इस दिन परंपरागत रूप से भेड़, बकरी या गाय का वध किया जाता है और उसका मांस परिवारों और ज़रूरतमंदों के बीच बांटा जाता है। बच्चे नए कपड़े पहनते हैं, मिठाइयाँ बनती हैं और बाजारों में रौनक रहती है। लेकिन इस बार गाजा के लिए यह सब एक सपना भर रह गया।
मांस की अनुपलब्धता और भारी महंगाई
गाजा में तीन महीने से कोई ताज़ा मांस नहीं आया है। इज़रायली घेराबंदी के कारण न केवल खाद्य आपूर्ति रुक गई है बल्कि युद्ध और हमलों के चलते अधिकांश स्थानीय पशुधन भी समाप्त हो गया है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, 96% पशुधन और 99% मुर्गियाँ नष्ट हो चुकी हैं। युद्ध से पहले की 95% फसल भूमि भी या तो बर्बाद हो चुकी है या सैन्य नियंत्रण वाले क्षेत्रों में है।
मुवासी में अस्थायी बाड़ों में कुछ पशु दिखे, लेकिन अधिकतर लोग उन्हें खरीदने की स्थिति में नहीं थे।
“मैं रोटी भी नहीं खरीद सकता, मांस तो बहुत दूर की बात है,” कहते हैं अब्देल रहमान मादी। “कीमतें आसमान छू रही हैं।”
बाज़ारों की वीरानी और बच्चों की मायूसी
खान यूनिस के पास एक बाज़ार में पुराने कपड़े और खिलौने तो थे, लेकिन उन्हें खरीदने की ताकत शायद ही किसी में थी। हाला अबू नकीरा बताती हैं, “पहले ईद में खुशी होती थी, अब बच्चों के पास कपड़े नहीं हैं, आटा भी नहीं है। हर रोज़ सस्ते आटे की तलाश में निकलते हैं लेकिन मिलती है तो अविश्वसनीय कीमतों पर।”
सीमित राहत और बाधित वितरण
हालांकि दो हफ्ते पहले इज़रायल ने सीमित मानवीय राहत को गाजा में प्रवेश की अनुमति दी है, पर संयुक्त राष्ट्र के अनुसार ट्रकों की संख्या बहुत कम है और लूटपाट या इज़रायली सैन्य प्रतिबंधों के कारण वितरण में भारी बाधाएं हैं। कुछ आटा पहुंचा है, लेकिन वह भी पर्याप्त नहीं है।

युद्ध की छाया में उजड़ा त्योहार
करीमा नेजेली, जो राफा से विस्थापित हुई हैं, बताती हैं, “हमने युद्ध के दौरान चार ईदें देखीं, लेकिन किसी में भी बलिदान नहीं हुआ, न कुकीज़ बनीं, न ही कपड़े खरीदे। बस जान बची रही, यही बहुत था।”
रशा अबू सौलेमा ने अपनी बेटियों के लिए पुराने गुलाबी चश्मे और प्लास्टिक कंगन को उपहार बनाया, क्योंकि नया कुछ खरीदने का सवाल ही नहीं था।
गाजा की स्थिति ईद-उल-अज़हा जैसे खुशियों भरे त्योहार को भी संघर्ष और पीड़ा में बदल देती है। यह केवल भोजन की कमी नहीं, बल्कि मानवीय गरिमा और आत्मसम्मान की लड़ाई बन गई है। इस बार न तो घरों में हँसी गूंजी, न बाजारों में चहल-पहल दिखी। यह त्योहार सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि गाजा के लोगों की जिजीविषा और संघर्ष की गवाही बन गया।
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